मैं धर्म की दलील देकर इन्सान को झुठला नहीं सकता
मुझको तमीज है मजहब की भी और इंसानियत की भी
ज़मीर भी गर बिकता है तो अब बेच आना प्रजातंत्र का
मुझको समझ है सरकार की भी और व्यापार की भी
जो मेरा है मुझे वही चाहिए ना कि तुम्हारी कोई भीख
मुझे फर्क पता है उपकार की भी और अधिकार की भी
वोटों की बिसात पर प्यादों के जैसे इंसां ना उछाले जाएँ
मुझको मालूम है परिभाषा स्वीकार और तिरस्कार की भी
अपने दिल को पालो ऐसे की खून की जगह ख़ुशी बहे
उसमें हो थोड़ी जगह मंदिर की भी और मज़ार की भी
-सलिल सरोज
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